Om Sai Ram
Monday, August 16, 2010
आजादी के मायने ?क्या हम आजाद है?आज स्वतंत्रता दिवस की ६३ वी वर्षगांठ पे मै तरुण आप सभी मित्रों को हार्दिक बधाइयाँ देता हुए कुछ सवाल आप सब से पूछता हू
जय हिंद मित्रों
आज स्वतंत्रता दिवस की ६३वी वर्षगांठ पे मै तरुण आप सभी मित्रों को हार्दिक बधाइयाँ देता हुए कुछ सवाल आप सब से पूछना चाहता हू जो मेरे जेहन में काफी दिनों से कौंध रहे है.
मित्रों क्या हम सही मायने में आजाद हो गए है? क्या है आज कल की युवा पीढ़ी के लिए आजादी के मायने? बस एक दिन का अवकाश या और कुछ?
कई सालों से देखता चला आ रहा हू की १५ अगस्त हो २६ जनवरी हमारे देश में बस एक अवकाश मात्र हो के रह गए है, २,४ गिनी चुनी फिल्मे दिखा दी जाती है टेलिविज़न पे और कुछ प्रोग्राम्स जिनमे तिरंगा ले के सेलेब्रिटीज हमे ये अहसास दिलाते है की हम आजाद है....क्या यही आजादी है ?क्या इसी आजादी के लिए लाखों लोगो में अपनी क़ुरबानी दी थी?
हमे बचपन में माता पिता आजाद भगत सिंह और गाँधी की विचार धारा के बारे में बताते थे और बताया जाता था की जब भी राष्ट्रगान सुनो तो पूरी आस्था के साथ सावधान की मुद्रा में उसका सम्मान करो और आज भी बरबस ही हमारे कदम रुक जाते है जब कही से भी ये धुन हमारे कानो में पड़ती है . पर आज राष्ट्रगान को एक मनोरंजक गाने में भी पेश करने से गुरेज नही किया जाता जिसे लोग आराम से पॉपकॉर्न खाते हुए बिस्तर पे बैठ के देखते है.
आज आजादी का दिन लोग अपनी बड़ी बड़ी गाडियों पे तिरंगा लगा के मानते है और शाम होते ही वो गौरवशाली तिरंगा जिसके सम्मान के लिए लोग जान देने से भी पीछे नही हटते थे कभी ,वो सडकों पे बिखरा दिखाई देने लगता है , नालियों में दीखता है क्या यही आजादी है?और यही हमारा देशप्रेम?
अगर ये आजादी है तो मेरी नजर में वो गुलामी ही बेहतर थी जिससे
लड़ने का जज्बा तो था हम में शायद .तब तो हम केवल अंग्रेजो से लड़ रहे थे अपने सम्मान के लिए ,
.....एक आम भारतीय के सम्मान के लिए .पर आज तो कई दुश्मनों से लड़ रहे है ,कही आतंकवाद से तो कही नक्सलवाद से कही जातिवाद से और कही भ्रष्टाचार से . उन दिनों हमारी लड़ाई अंग्रेजो थी जो की प्रत्यक्ष लक्छित थी पर आज तो अपने हे कुछ लोगो की गुलामी से जूझ रहा है ,आज की लड़ाई तो और भी कठिन है क्यों की आज दुश्मन अप्रत्यक्ष रूप में हमारे आस पास ही घूम रहा है.
आज फिर वो दिन आ गया है जब हमे क्रांति की आवश्यकतामहसूस होने लगी है, क्रांति आज की व्यवस्था के खिलाफ आज के परिवेश के खिलाफ
हमे आज फिर भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु की आवश्यकता जान पड़ती है और एक एक की संख्या में नही लाखों की संख्या में पहले हमारा देश अंग्रेजी दासता से पीडित था आज फिर वही देश दासता से पीडित है पर यह दासता अंग्रेजो या किसी बाहरी की दी हुई नही है ,यह हमारे ही देश के चंद लोगो की देन है जो हमारे ऊपर शासन कर रहे है हमारे बीच नेता बने हुए बैठे है और देश को बेच के खा रहे है
मैं ये नही कहता कि यह कोई जान नही रहा है या समझ नही रहा है पर मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब कोई इसके खिलाफ आवाज नही उठाता, विरोध नही करता है मैंने तो सुना है कि अन्याय करने वाले से कही अधिक दोषी अन्याय सहने वाला होता है तो फिर वे दोषी नही दोषी हम है
मैं आज के युवा वर्ग से एक सवाल करता हू कि आखिर कब तक हम इनके अन्यायों को सहते रहेंगे और इनके हाथों कि कठपुतली बनकर नाचते रहेंगे? आखिर कब तक हम अपने देश को इन चंद लोगों के हाथों का खिलौना बनता देखते रहेंगे?
अगर हम में थोड़ी भी शर्म बाकि है तो अब हमें जागना चाहिए ,इनका विरोध करना चाहिए
मैं आज तक समझ नही पाया कि ये नेतागण आखिर किस चीज कि राजनीति करते हैं ,इनका मुद्दा क्या है – दो भाइयों को आपस में बांटकर , लड़ा कर वोट पाना,मंदिर के नाम पे मस्जिद के नाम पे ,दलित के नाम पे सवर्ण के नाम पे,हिंदू के नाम पे मुस्लमान के नाम पे आखिर कब तक कोई नेता वोट मांग मांग कर अपनी राजनितिक रोटी सेंकता रहेगा?
आखिर कब तक हमारा भारत विकाशसील रहेगा? हम विकसित कब होंगे? आखिर क्या कमी है हम में ? क्यों अमेरिका,जापान विकसित हैं? क्या हमारे देश में दिमाग की कमी है ? श्रम की कमी है? नही हमारे देश में अराजकता है ,भ्रष्टाचार है जो की वह नही है जो विकसित है वहाँ लोग अपने वतन के प्रति ईमानदार है इसीलिए वे विकसित है.
इसका एकमात्र उपाय है कि युवा शक्ति जागरूक हो और सम्पूर्ण शक्ति के साथ भ्रष्टाचार का विरोध करे
हमारे नेतागण फालतू मुद्दों पे खूब बहस करते है परन्तु ये नेता उस वक्त कहा होते है जब अमेरिका हल्दी ,तुलसी गोमूत्र अदि पे पेटेंट करा रहा होता है?
यदि इसी प्रकार चलता रहा तो वो दिन दूर नही जब हमारे पूर्वजो के लिखे वेड ,उपनिषद भारत में नही बल्कि न्युयोर्क के WHITE HOUSE में प्राप्त होंगे और उन्हें पढ़ने के लिए हमें अमरीकियों कि आज्ञा लेनी पड़ेगी
आज हमारे कितने मित्र गण कितने युवा बेरोजगार हैं ,ऐसा नही है कि उनके पास योग्यता नही है ज्ञान नही है ,उनके पास वे सारी चीजे है किन्तु उन्हें नौकरी नही मिल रही है हमारे नेता जी कहते है बेरोजगारी हटाओ और कहकर नौजवानों का वोट मांगते है पर ये नेता राष्ट्र को आर्थिक रूप से खोखला करते जा रहे है ये वो जोंक है जो सिर्फ और सिर्फ पैसा चूसता है जब देश में पैसा हे नही रहेगा तो नौजवानों को रोजगार खा से मिलेगा?
एक मंत्री साल भर में तीन लाख कि सिर्फ चाय पिता है लगभग दस लाख का पेट्रोल बर्बाद करता है इस प्रकार एक मंत्री लगभग १५ लाख रूपये बर्बाद करता है जिससे यदि ५००० रूपये मासिक कि नौकरी दी जाय तो २५ ,कम से कम २५ नौजवानों को रोजगार मिल जायेगा तो सोचिये जरा भारत में लगभग ५००० मंत्री और विधायक है कितने नौजवानों कि जिंदगी ये माननीय नेता जी अपनी चाय कि चुस्कियों में उदा देते है?
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सही कहा तरुण भाई ! थोडा चिंतन कि आवश्यकता है !
ReplyDeleteGud Bhai Tarun......
ReplyDeleteनमस्कार ! आपकी यह पोस्ट जनोक्ति.कॉम के स्तम्भ "ब्लॉग हलचल " में शामिल की गयी है | अपनी पोस्ट इस लिंक पर देखें http://www.janokti.com/category/ब्लॉग-हलचल/
ReplyDeleteयह लेखनी कैसी कि जिसकी बिक गयी है आज स्याही !
यह कलम कैसी कि जो देती दलालों की गवाही !
पद-पैसों का लोभ छोड़ो , कर्तव्यों से गाँठ जोड़ो ,
पत्रकारों, तुम उठो , देश जगाता है तुम्हें !
तूफानों को आज कह दो , खून देकर सत्य लिख दो ,
पत्रकारों , तुम उठो , देश बुलाता है तुम्हें !
" जयराम विप्लव "
हिंदी चिट्ठाकारी की सरस और रहस्यमई दुनिया में राज-समाज और जन की आवाज "जनोक्ति.कॉम "आपके इस सुन्दर चिट्ठे का स्वागत करता है . चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें . अपने राजनैतिक , सामाजिक , आर्थिक , सांस्कृतिक और मीडिया से जुडे आलेख , कविता , कहानियां , व्यंग आदि जनोक्ति पर पोस्ट करने के लिए नीचे दिए गये
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nice post
ReplyDelete# मित्रो, क्या हम सही मायने में आजाद हो गए है? क्या है आज कल की युवा पीढ़ी के लिए आजादी के मायने? बस एक दिन का अवकाश या और कुछ?
ReplyDelete@ हाँ हम आपनी वाहियात हरकतों के लिए तो आज़ाद हैं ही. आजकल की युवापीढ़ी के लिए आज़ादी के मायने मनमानी करने से हैं. नियम-कायदों के अंकुश की चुभन उसे ज़रा भी बर्दाश्त नहीं. फिर भी संविधान ने हमें जो छह मौलिक अधिकार दिए हैं उनको यथासंभव प्रयोग तो कर ही पा रहे हैं. यह सांवैधानिक छूट केवल अवकाश नहीं है, यह छूट तो मिलने-जुलने को बढ़ावा देती है, पर कुछ लोग इस मिले अवकाश में निद्रा से मिलते हैं, पूरे दिन बिस्तर पर बैठ टीवी के आगे उनीदे ही बिता देते हैं. पर कुछ लोग इसे अपने परिवार और दोस्तों से मिलने-जुलने में बिताते हैं.
# कई सालों से देखता चला आ रहा हू की १५ अगस्त हो २६ जनवरी हमारे देश में बस एक अवकाश मात्र हो के रह गए है, २,४ गिनी चुनी फिल्मे दिखा दी जाती है टेलिविज़न पे और कुछ प्रोग्राम्स जिनमे तिरंगा ले के सेलेब्रिटीज हमे ये अहसास दिलाते है की हम आजाद है....क्या यही आजादी है ?क्या इसी आजादी के लिए लाखों लोगो में अपनी क़ुरबानी दी थी?
@ आजकल सभी कुछ सिम्बोलिक है, वह चाहे १५ अगस्त और २६ जनवरी पर देशभक्ति की फ़िल्में दिखाना हो, अथवा राखी के त्यौहार पर भाई-बहन की गीतों की धुनें बजाना हो, यह बुरा नहीं है, यह प्रतीकात्मकता तो पहले भी थी, यदि यह न हो तो क्या होना चाहिये? — कभी सोचा है? अगर रोज़ ही आपके घर में पकवान बनें तो पकवानों की अहमियत कम नहीं हो जायेगी. देखिये जी, कुर्बानी तो लाखों लोगों ने अवश्य दी, पर यह उसी तरह से है जैसे कि जीवन भर किसी सेठ ने धन-दौलत जोड़ी और उसके पुत्र ने उसे मनमाने तरीके से खर्च किया. सेठ जी कोई गाइडलाइन तय करके नहीं गए थे कि उनकी कमायी दौलत को उनके बाद कैसे खर्च किया जाए, यहाँ भी देश के लिए जान गँवाने वाले अलग थे और उसका क्रेडिट लेने वाले अलग रहे. बाद के नेताओं ने देश को जो रूप देना था वह दिया और अपनी प्राथमिकतायें तय कीं — जाति आधारित आरक्षण, अधिकारों में धर्म आधारित भेदभाव, रोजगारोन्मुख शिक्षा, प्राकृतिक दोहन से विकास, रिआया मानसिकता के कारण आंग्ल-प्रेम, [पर साथ ही मातृभाषा से विमुखता], काफी कुछ ऐसा है जिसे प्राथमिक नहीं होना चाहिये था.
# हमे बचपन में माता पिता आजाद भगत सिंह और गाँधी की विचार धारा के बारे में बताते थे और बताया जाता था की जब भी राष्ट्रगान सुनो तो पूरी आस्था के साथ सावधान की मुद्रा में उसका सम्मान करो और आज भी बरबस ही हमारे कदम रुक जाते है जब कही से भी ये धुन हमारे कानो में पड़ती है . पर आज राष्ट्रगान को एक मनोरंजक गाने में भी पेश करने से गुरेज नही किया जाता जिसे लोग आराम से पॉपकॉर्न खाते हुए बिस्तर पे बैठ के देखते है.
@ तरल पदार्थ को जिस सांचे में डालोगे तरल पदार्थ सूखते-सूखते वही रूप तो लेगा जो सांचे का है. अब हमारा परिवेश भी तो ऐसा ही है जिसमें बिस्तर हमारे शयन-कक्षों में हमेशा बिछा रहता है. और आज की जिन्दगी एक कमरे में ही बामुश्किल गुजार पाती है. टीवी, फ्रिज, रसोई, लेटरिन, बाथरूम सभी कुछ पास-पास, खाने का समय भी निर्धारित नहीं, तो ऐसे में जहाँ कोई कायदा-उसूल न हों, वहाँ राष्ट्रगान तो एक मनोरंजक गीत ही बन जाएगा.
दूसरी बात, यदि आज के बच्चों को 'एक अश्लील गीत' को बिना अर्थ बताये 'राष्ट्रगान' के रूप में रटा दिया जाए तो वह भी वही सम्मान पायेगा जो आज 'जन गण मन' को दिया जाता है. अतः हमें गीत के अर्थ से भी एक समय बाद प्रेरणा मिलती है. उस गीत का कम्पन/ उस गान की तरंगें ही हमारे भावों को अपने उद्देश्य की और मोड़ लेती हैं. लेकिन 'जन गण मन' को आज भी कई अर्थ-व्याख्याता केवल चारण-गान [foot -song ] कहते हैं.
# आज आजादी का दिन लोग अपनी बड़ी बड़ी गाडियों पे तिरंगा लगा के मानते है और शाम होते ही वो गौरवशाली तिरंगा जिसके सम्मान के लिए लोग जान देने से भी पीछे नही हटते थे कभी ,वो सडकों पे बिखरा दिखाई देने लगता है , नालियों में दीखता है क्या यही आजादी है?और यही हमारा देशप्रेम?
@ यदि आप मूर्त-रूप के उपासक हैं तब तो यह वास्तव में बुरा लगेगा. हाँ, इस बात से मैं सहमत हूँ कि जिसका सम्मान हम बेशक प्रतीकात्मक रूप में करते हैं उसका व्यवहारिक रूप में भी करें.
# अगर ये आजादी है तो मेरी नजर में वो गुलामी ही बेहतर थी जिससे लड़ने का जज्बा तो था हममें शायद .तब तो हम केवल अंग्रेजो से लड़ रहे थे अपने सम्मान के लिए ....
@ इस पर मैं केवल शिवमंगल सिंह सुमन जी की कविता "हम पंछी उन्मुक्त गगन के" से कुछ उद्धृत करना चाहूँगा :
"हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से."
आपका लेख विचारों को विराम नहीं लेने देता. इस कारण श्रेष्ठ लेख है. बधाई.
तरुण भाई काफी सराहनीय लेख है|
ReplyDeleteनमस्कार
ReplyDeleteसर्वप्रथम कोटि कोटि धन्यवाद मित्रों आपके इन प्रेम से परिपूर्ण और उत्साहवर्धक प्रोत्साहन के लिए....
विशेष कर प्रतुल भाई साहब को धन्यवाद देना चाहूँगा उनकी बहुमुल्य और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए........
आपका तरुण
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें